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जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’
जन्म – 1866 ई०
जन्म स्थान- काशी (उ.प्र.)
पिता – पुरुषोत्तम दास
मृत्यु – 21जून 1933 ई०
सुनि सुनि उधव की अकह कहानी कान
कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिं थिरानी हैं !
कहै रतनाकर रिसानी, बररानी कोऊ
कोऊ बिलखानी, बिकलान, बीथकानी हैं,
ब्रज भाषा के प्रख्यात कवियों में सुमार जगन्नाथदास का जन्म भाद्रपद सुदी पंचमी को काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में सन 1866 ई० को हुआ, इनके पिता पुरुषोत्तम दास की गिनती काशी के धनाढ्य लोगों के मध्य हुआ करती थी पुरुषोत्तम दास भारतेन्दु हरिश्चंद्र के करीबी मित्रों में सुमार थे, रत्नाकर जी की प्रारम्भिक शिक्षा फारसी भाषा में सम्पन्न हुई थी, ये बाल्यकाल से ही काफी प्रतिभावान बालक थे, फारसी भाषा से ज्ञानर्जन के उपरान्त इन्होंने उर्दू और अंग्रेज़ी विषय का भी गहन अध्ययन किया रत्नाकर जी की शिक्षा बी०ए०, एल०एल०बी० के साथ एम०ए०(फारसी) अपूर्ण रहा इनके परास्नातक की शिक्षा का पूर्ण ना होने का सबसे बड़ा कारण इनके माता जी की मृत्यु रहा, रत्नाकर जी बहुत मिलनसार प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे, इन्होंने 1900 ई० में अवागढ (एटा) के खजाने का निरिक्षक, 1902 ई० में अयोध्या नरेश के निजी सचिव तथा 1906 ई० में अयोध्या नरेश की मृत्यु के उपरान्त महारानी के निजी सचिव के रूप में कार्य किया, हमेशा से राज दरबार में रहने के कारण इनका रहन-सहन राजाओं की तरह था, ये काफी विद्वान् प्रवृत्ति के व्यक्ति थे ! प्राचीन भाषाओ विज्ञान की अनेक भाषाओं की मूल जानकारी में इन्हें महारत हासिल थी, विद्यार्थी जीवन में इनकी रचनाएँ उर्दू और फारसी भाषा में थी किन्तु कालान्तर में इनकी रचनायें ब्रजभाषा में रचित हुयी अपनी साहित्य रचना के आरम्भ के दौरान इन्होंने 1893 ई० में “साहित्य –सुधानिधि” का सम्पादन किया !
इनके द्वारा संपादित अनेक ग्रन्थ है जिनमें दूलह कवि कृत “कंठाभरण” कृपारामकृत “हिततरंगिणी” चंद्रशेखरकृत “नाखशिख” सन 1897 ई० में रत्नाकर जी ने “घनाक्षरी नियम रत्नाकर” को प्रकाशित कराया, 1923 ई० में प्रारम्भ “उद्ववशतक” नामक इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना का लेखन हुआ एक बार हरिद्वार की तीर्थ यात्रा के दौरान इनकी पेटी खो गई जिससे इनके “उद्ववशतक” के सवा सौ छंद चोरी हो गये किन्तु रत्नाकर जी ने अपनी स्मृति के द्वारा उन छन्दों को पुनः रचित कर दिया, सन 1926 ई० में औरियंटल कांफरेस के हिन्दी विभाग के सभापति के पद पर आसीन हुए !
सन 1930 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के बीसवें अधिवेशन में भी इन्होनें सभापति के पद पर बखूबी कार्य किया, 21 जून 1932 को हरिद्वार की तीर्थ यात्रा के दौरान ये स्वर्ग सिधार गये !
साहित्यिक परिचय –
रत्नाकर जी की सर्वाधिक रचनाये ब्रजभाषा में उधृत है किन्तु इन्हें संस्कृत, प्राकृत, फारसी, उर्दू अंग्रेज़ी भाषाओं का विद्वान् कहा जाता है, इनकी कवि प्रतिभा बहुत ही आश्चर्यकारी थी, छंदों की जो व्याख्या इनके द्वारा की गयी वह अत्यंत्त विलक्षण है, इनकी रचनाओं में ठेठ शब्दावली का बहुत ही व्यापक रूप में प्रयोग हुआ है !
रचनायें –
पद्य – हरिश्चंद्र , गंगावतरण, उद्ववशतक, हिंडोला, कलकाशी, पघावली, समलोचना दर्श, श्रृंगार लहरी, गंगा लहरी, विष्णु लहरी, रत्नाष्टक !
गद्य – बिहारी लाल की जीवनी, बिहारी सतसई की टीकाए !
ऐतिहासिक लेख-
शिवाजी का नया पत्र, शुगवंश का एक शिलालेख, एक प्राचीन मूर्ति घनाक्षरी निय रत्नाकर,समुद्रगुप्त का पाषाणाश्व सवैया, छंद, वर्ग इत्यादि !
सुधासागर, कविकुल कंठाभरण, दीप प्रकाश, सुंदर श्रृंगार, हम्मीर हठ रसिक विनोद, समस्यापूर्ति, सुजानसागर, हिततरंगिणी !